का करि सकत कुसंग
अरुण देव
१.
मेरी टेबल मेरे लिए जहाँ आमन्त्रण है, वहीं चुनौती भी. उसके एक सिरे पर बैठ सिर झुकाकर कितनी रातें गुजरी. जब यात्राओं में होता हूँ लैंप की गिरती रौशनी में कलम की चमकती हुई स्याही मुझे बुलाती है. यात्राओं के टेबल टेक भर होते हैं, थोड़ी देर तक के लिए बस. अनुभव और अनुभूति के संगम पर अपनी मेज़ को पाता हूँ जहाँ से खुद अपने को खोजता हूँ. मैं मेज़ पर कुछ कहने के लिए नहीं बैठता. मैं तो मेज़ पर बैठ शब्दों को सुनता हूँ.
२.
अगर लेखक का कोई घर हुआ तो अपने बैठने की कोई आत्मीय जगह भी वह बना ही लेता है, जहाँ उसकी धूनी रमती है और वह सिद्ध नहीं तो सिद्धहस्त तो हो ही जाता है. मेज़ के बारे में सोचते ही एक साफ सुधरी सी जगह सामने दिख जाती है. जब से लिखने पढने लायक हुआ अपने सामने किसी न किसी मेज़ को पाया. मेरे पितामह स्वर्गीय श्री शिवनारायन लाल जहाँ शिकार के शौक़ीन थें वही उनकी लाइब्रेरी में शिकार – कथाओं का भी अम्बार था. सबसे पहले उनकी एक लोहे की मेज़ मुझे मिली जिसे फोल्ड किया जा सकता था. उस मेज़ पर अपनी पसंद की जो पहली किताब मैंने पढ़ी वह पितामह की ही लाइब्रेरी से थी-‘मैन इटर्स आफ कुमायूं’. अरबी, फारसी, उर्दू, संस्कृत, इंग्लिश और हिंदी के इस खज़ाने से मैं हिंदी और अंग्रेजी की ही किताबें पढ़ सकता था. उस समय परेश बनर्जी की एक किताब- ‘हैण्ड बुक आफ स्नेक बाईट’ मेरी प्रिय किताब हुआ करती थी. यह १९२९ में खुद लेखक द्वारा ही प्रकशित है. इसके प्रिय होने के एक साथ कई कारण थे- एक तो इसकी भाषा सरल थी, साँपों के रंगीन रेखाचित्र थे और कुछ श्वेत स्याम फोटोग्राफ्स भी. सबसे रोचक इसमें लगभग ११०० सांपो के काटने के केस रिपोर्ट थे. बहुत ही दिलचस्प. साँपों के काटने के कुछ इलाज भी बताएं गए थे. इसी किताब के बदौलत मित्रो को गाहे- ब- गाहे कुछ नुस्खें भी दे दिया करता था.
आज सोचता हूँ : यह वह समय था जब देश आज़ादी की लड़ाई में अपने होने को पहचान रहा था. हर जगह नवाचार था पर अपने को खोजने का आत्मसंघर्ष भी. ऐसे समय में एक भारतीय सांपो पर पश्चिमी ढंग से शोध करके उन्ही की शैली में एक किताब प्रकाशित करता है और वह किताब घरेलू पुस्तकालयों तक में पहुंच जाती है.
३.
कल्याण (गीता प्रेस) के सभी शुरुआती अंक थे. उन्ही में किसी अंक में कबीर पर क्षितिजमोहन सेन का एक लेख पढने को मिला. बड़े बड़े जिल्दों में ‘द टाइम्स आफ इण्डिया’ के वार्षिकांक थे. इन पत्रिकाओं में पेंटिग अलग से चिपकाये जाते थे. आज के विज्ञापनों की तरह उनमें भी विज्ञापन हैं, लक्स, लाइफबाय जैसे साबुन १९३८ के एक अंक में मुझे वैसे ही मिले- लक्स के एक विज्ञापन के नीचे लिखा है- the Beauty Soap of the film stars. ऐसा लगता है टाइम्स ग्रुप में खूब विज्ञापन देने की पुरानी परम्परा है.
धीरे धीरे इस मेज़ पर अब जासूसी उपन्यासों की भीड़ होने लगी. एक दिन में दो उपन्यास के औसत से नगर के सभी उपलब्ध उपन्यास निपटा दिए गए. हंस भी तभी पढने लगा था.
४.
मेज के एक किनारे अब एक लैपटाप भी है. मेज पर किताबे पढने के बीच कुछ अन्तराल आया है. कई बार कुछ किताबे अधूरी रह जाती हैं जिन्हें पूरा करना है. इस समय मेरी टेबल पर विचारक लेखक पुरुषोतम अग्रवाल की किताब-‘हिंदी सराय : अस्त्राखान वाया येरेवान है’. प्रसिद्ध कथाकार बटरोही का एक उपन्यास है- ‘गर्भगृह में नैनीताल’. इसके कुछ पेज अभी पढ़े हैं. ओम निश्चल द्वारा संपादित – अशोक वाजपेयी की प्रेम कविताएँ. देख रहा हूँ. अनिरुद्ध उमट के निबन्धों का संग्रह- ‘अन्य का अभिज्ञान’ कब से पढने के लिए आमंत्रित कर रहा है. निशांत, राहुल राजेश और प्रिंयका पंडित के कविता संग्रह बीच-बीच में पढ़ता रहता हूँ और मुदित होता रहता हूँ.
अरुण देव
१.
मेरी टेबल मेरे लिए जहाँ आमन्त्रण है, वहीं चुनौती भी. उसके एक सिरे पर बैठ सिर झुकाकर कितनी रातें गुजरी. जब यात्राओं में होता हूँ लैंप की गिरती रौशनी में कलम की चमकती हुई स्याही मुझे बुलाती है. यात्राओं के टेबल टेक भर होते हैं, थोड़ी देर तक के लिए बस. अनुभव और अनुभूति के संगम पर अपनी मेज़ को पाता हूँ जहाँ से खुद अपने को खोजता हूँ. मैं मेज़ पर कुछ कहने के लिए नहीं बैठता. मैं तो मेज़ पर बैठ शब्दों को सुनता हूँ.
२.
अगर लेखक का कोई घर हुआ तो अपने बैठने की कोई आत्मीय जगह भी वह बना ही लेता है, जहाँ उसकी धूनी रमती है और वह सिद्ध नहीं तो सिद्धहस्त तो हो ही जाता है. मेज़ के बारे में सोचते ही एक साफ सुधरी सी जगह सामने दिख जाती है. जब से लिखने पढने लायक हुआ अपने सामने किसी न किसी मेज़ को पाया. मेरे पितामह स्वर्गीय श्री शिवनारायन लाल जहाँ शिकार के शौक़ीन थें वही उनकी लाइब्रेरी में शिकार – कथाओं का भी अम्बार था. सबसे पहले उनकी एक लोहे की मेज़ मुझे मिली जिसे फोल्ड किया जा सकता था. उस मेज़ पर अपनी पसंद की जो पहली किताब मैंने पढ़ी वह पितामह की ही लाइब्रेरी से थी-‘मैन इटर्स आफ कुमायूं’. अरबी, फारसी, उर्दू, संस्कृत, इंग्लिश और हिंदी के इस खज़ाने से मैं हिंदी और अंग्रेजी की ही किताबें पढ़ सकता था. उस समय परेश बनर्जी की एक किताब- ‘हैण्ड बुक आफ स्नेक बाईट’ मेरी प्रिय किताब हुआ करती थी. यह १९२९ में खुद लेखक द्वारा ही प्रकशित है. इसके प्रिय होने के एक साथ कई कारण थे- एक तो इसकी भाषा सरल थी, साँपों के रंगीन रेखाचित्र थे और कुछ श्वेत स्याम फोटोग्राफ्स भी. सबसे रोचक इसमें लगभग ११०० सांपो के काटने के केस रिपोर्ट थे. बहुत ही दिलचस्प. साँपों के काटने के कुछ इलाज भी बताएं गए थे. इसी किताब के बदौलत मित्रो को गाहे- ब- गाहे कुछ नुस्खें भी दे दिया करता था.
आज सोचता हूँ : यह वह समय था जब देश आज़ादी की लड़ाई में अपने होने को पहचान रहा था. हर जगह नवाचार था पर अपने को खोजने का आत्मसंघर्ष भी. ऐसे समय में एक भारतीय सांपो पर पश्चिमी ढंग से शोध करके उन्ही की शैली में एक किताब प्रकाशित करता है और वह किताब घरेलू पुस्तकालयों तक में पहुंच जाती है.
३.
कल्याण (गीता प्रेस) के सभी शुरुआती अंक थे. उन्ही में किसी अंक में कबीर पर क्षितिजमोहन सेन का एक लेख पढने को मिला. बड़े बड़े जिल्दों में ‘द टाइम्स आफ इण्डिया’ के वार्षिकांक थे. इन पत्रिकाओं में पेंटिग अलग से चिपकाये जाते थे. आज के विज्ञापनों की तरह उनमें भी विज्ञापन हैं, लक्स, लाइफबाय जैसे साबुन १९३८ के एक अंक में मुझे वैसे ही मिले- लक्स के एक विज्ञापन के नीचे लिखा है- the Beauty Soap of the film stars. ऐसा लगता है टाइम्स ग्रुप में खूब विज्ञापन देने की पुरानी परम्परा है.
धीरे धीरे इस मेज़ पर अब जासूसी उपन्यासों की भीड़ होने लगी. एक दिन में दो उपन्यास के औसत से नगर के सभी उपलब्ध उपन्यास निपटा दिए गए. हंस भी तभी पढने लगा था.
४.
मेज के एक किनारे अब एक लैपटाप भी है. मेज पर किताबे पढने के बीच कुछ अन्तराल आया है. कई बार कुछ किताबे अधूरी रह जाती हैं जिन्हें पूरा करना है. इस समय मेरी टेबल पर विचारक लेखक पुरुषोतम अग्रवाल की किताब-‘हिंदी सराय : अस्त्राखान वाया येरेवान है’. प्रसिद्ध कथाकार बटरोही का एक उपन्यास है- ‘गर्भगृह में नैनीताल’. इसके कुछ पेज अभी पढ़े हैं. ओम निश्चल द्वारा संपादित – अशोक वाजपेयी की प्रेम कविताएँ. देख रहा हूँ. अनिरुद्ध उमट के निबन्धों का संग्रह- ‘अन्य का अभिज्ञान’ कब से पढने के लिए आमंत्रित कर रहा है. निशांत, राहुल राजेश और प्रिंयका पंडित के कविता संग्रह बीच-बीच में पढ़ता रहता हूँ और मुदित होता रहता हूँ.
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