आत्म कथ्य

आत्मकथ्य-

कभी-कभी एक शब्द की चोट से खुल जाता है कंठ. शब्द ही लौ है– बुझे दीए जल उठते हैं. कविता आलोक है ध्वनि का. अपने  काव्य-सिद्धांत के ग्रन्थ  का नाम ध्वन्यालोक, आचार्य आनंदवर्धन ने ठीक ही रखा है. मैथ्यु अर्नोल्ड कहा करते थे कि एक समय आएगा जब कविताएँ धर्म का स्थान ले लेंगी क्योकि सभी धार्मिक किताबें कविता की ही किताबें थीं. आखिर कविता में क्या है वह रहस्यमय? हमारी आत्मा की कौन सी पुकार वहां प्रतिध्वनित होती है? जीवन के किस लय से टकराता है उसका कौन सा तुक? काव्य के बिना शायद ही हमारे जीवन का कोई दिन गुजरता हो. वह किसी न किस रूप में हमारे साथ रहता ही है. चाहे वह पवित्र पोथिओं और फिर उनकी दुर्व्याख्याओं के रूप में ही हमारे साथ क्यों न हो. कविता का सोता अंदर से फूटता है इसलिए वहां अभी भी सबसे कम प्रदूषण हैं मनुष्य की मूल प्रवृतिओं का आदिम स्वाद अभी भी वहां शेष है. अक्षरों की लौ में अभी भी वहाँ मनुष्यता की कालिमा पहचान ली जाती है. पतन पर कविता रुदाली बन जाती है, मानवता का सामूहिक रुदन. पूरब से उठते उम्मीद की ओर कविता के अनुरक्त नेत्रों से बेहतर कुछ भी नहीं.

कई बार सोचता हूँ- कहाँ रहती है कविता- भाषा में,शब्दों में,वाक्यों ने बीच के अवकाश में, अंतर्निहित लय में. कहाँ? आलोक कहा रहता है- दीए में, बाती में,स्नेह में, माचिस की तीली में?. इन सबके संयोजन मे आलोक है. ठीक वैसे ही कविता इन सबके संतुलित संयोजन से आलोकित होती है.  बौद्ध दार्शनिक नागार्जुन की मानें तो शब्द अर्थ का स्पर्श तक नहीं करते. उत्तर आधुनिक भी यही दुहराते है कि जब भी शब्दों से अर्थ को कहा जाता है, उसे निर्मित किया जाता है. वह कविता ही तो है- अपने अर्थ के निकटतर.

वैसे भी कवि अपनी सीमाओं के लिए नहीं जाने जाते हैं.


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